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द॒धि॒क्राम॒ग्निमु॒षसं॑ च दे॒वीं बृह॒स्पतिं॑ सवि॒तारं॑ च दे॒वम्। अ॒श्विना॑ मि॒त्रावरु॑णा॒ भगं॑ च॒ वसू॑न्रु॒द्राँ आ॑दि॒त्याँ इ॒ह हु॑वे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dadhikrām agnim uṣasaṁ ca devīm bṛhaspatiṁ savitāraṁ ca devam | aśvinā mitrāvaruṇā bhagaṁ ca vasūn rudrām̐ ādityām̐ iha huve ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द॒धि॒ऽक्राम्। अ॒ग्निम्। उ॒षस॑म्। च॒। दे॒वीम्। बृह॒स्पति॑म्। स॒वि॒तार॑म्। च॒। दे॒वम्। अ॒श्विना॑। मि॒त्रावरु॑णा। भग॑म्। च॒। वसू॑न्। रु॒द्रा॑न्। आ॒दि॒त्या॑न्। इ॒ह। हु॒वे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:20» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् मनुष्य के कर्त्तव्य को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (इह) इस संसार में (दधिक्राम्) भूमि आदि धारण करनेवाले पदार्थों को उल्लङ्घन करके वर्त्तमान (अग्निम्) बिजुली रूप अग्नि (देवीम्) प्रकाशमान तथा कामना करने योग्य (उषसम्) प्रातःकाल (च) और (बृहस्पतिम्) बड़े-बड़े पदार्थों का रक्षक वायु (सवितारम्) सूर्य्य और सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति करनेवाला (देवम्) कामनायोग्य दानशील ईश्वर (च) और (अश्विना) अध्यापक उपदेशकर्त्ता (मित्रावरुणा) प्राण (च) और उदान वायु (भगम्) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य को देनेवाला व्यवहार (वसून्) भूमि आदि पदार्थ (रुद्रान्) प्राण और (आदित्यान्) संवत्सरों के मासों की (हुवे) स्तुति करता हूँ वा ग्रहण करता हूँ, वैसे ही तुम लोग इनकी निरन्तर स्तुति वा ग्रहण करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को चाहिये कि जैसे विद्वान् लोग इस सृष्टि के उपकारक पदार्थों से संपूर्ण कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे ही उन पदार्थों के गुणों को जानकर सम्पूर्ण अभीष्ट कार्यों को सिद्ध करें और सर्व जनों से ईश्वर-उपासना करने योग्य है ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि आदि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह बीसवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वन्मनुष्यकर्त्तव्यमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथाहमिह दधिक्रामग्निं देवीमुषसं च बृहस्पतिं सवितारं परमेश्वरं देवं चाश्विना मित्रावरुणा भगं वसून्रुद्रानादित्याँश्च हुवे तथैव यूयमप्येतान्सततमाह्वयत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दधिक्राम्) यो भूम्यादीन् दधीन्धर्त्रीन् पदार्थान् क्रामति तम् (अग्निम्) विद्युतम् (उषसम्) प्रभातम् (च) (देवीम्) देदीप्यमानां कमनीयाम् (बृहस्पतिम्) बृहतां पालकं वायुम् (सवितारम्) सूर्य्यम् (च) सकलजगदुत्पादकं परमेश्वरम् (देवम्) कमनीयं दातारम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (मित्रावरुणा) प्राणोदानौ (भगम्) सकलैश्वर्यप्रदं व्यवहारम् (च) (वसून्) भूम्यादीन् (रुद्रान्) प्राणान् (आदित्यान्) संवत्सरस्य मासान् (इह) (हुवे) स्तुवे गृह्णामि ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैः यथा विद्वांसोऽस्याः सृष्टेरुपकारकैः पदार्थैः सर्वाणि कार्य्याणि साध्नुवन्ति तथैतान् विदित्वा सर्वाण्यभीष्टानि कार्य्याणि साधनीयानि सर्वैः परमेश्वरः सततमुपासनीयश्चेति ॥५॥ । अत्राग्न्यादिविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति विंशतितमं सूक्तं विंशतितमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक या सृष्टीतील उपकारक पदार्थांनी संपूर्ण कार्य सिद्ध करतात तसे त्या पदार्थांच्या गुणांना जाणून माणसांनी संपूर्ण अभीष्ट कार्य सिद्ध करावे व ईश्वराची उपासना करावी. ॥ ५ ॥